Saturday, July 07, 2018

एक दृष्टि भारतीय रुपये के अवमूल्यन के कारण, 2008 के अमेरिकी मंदी के दौर पर और क्या वाकई रुपया कमजोर होना अर्थव्यवस्था के लिए अहितकर है

रुपए के मूल्य में डॉलर के मुकाबले कोई 8% की गिरावट इस वर्ष अब तक हो चुकी है।
रुपए का डॉलर के मुकाबले कमजोर होने के तीन प्रमुख कारण हैं।

1.) अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपना ब्याज दर जून 18 के मध्य से बढ़ा दिया है। पिछले 10 वर्षों में अमेरिका में ब्याज दर पहली बार बढ़ा है। इससे निवेशक अन्य देशों से निवेश खींचते हुए भारी मात्रा में बढ़े हुए ब्याज दर का लाभ लेने के लिए उस देश में निवेश करने लगते हैं। इससे अन्य देशों की करेंसी टूटने लगती है जिसे करेंसी क्रैश होना कहते हैं। अभी यही हुआ है। भारत सहित मेक्सिको, टर्की, अर्जेंटीना, ब्रिटेन, साउथ अफ्रीका, स्विटजरलैंड, जापान, चीन सभी के करेंसी डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हुए हैं।

2.) ट्रंप का पूरे विश्व में अमरीकी हितों की रक्षा के लिए उग्र व्यवसायिक नीतियों को अपनाना है। हालाँकि, भारत का निर्यात अमरीका को ज्यादा नहीं है। लेकिन सर्विसेस के रूप में भारत का निर्यात बहुत अधिक है और वीजा निर्गत करने में अमरीका की नई नीति की वजह से भारत को नुकसान है और इसका असर रुपए की शक्ति पर भी पड़ा है।

3.) तेल और स्वर्ण की बढ़ती कीमतों ने और खास कर ईरान के मसले के कारण भारत का रुपया बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

फेसबुक पर लोग 2008 के मंदी के दौर से तुलना कर कह रहे हैं कि पूरा विश्व उस दौर में मंदी से प्रभावित था सिवाय भारत के और इसका श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और काँग्रेस को जाता है।
लेकिन अभी की स्थिति तब से भिन्न है।
अभी जैसी स्थिति तब 2008 में हुई रहती तो मनमोहन सिंह से कुछ ऐसा ही कहते जैसा उन्होंने ने कहा था कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जिसे उन्होंने घुमाया और महंगाई काबू में आ गई।

2008 के मंदी के दौर में जहाँ लगभग सभी विकसित देशों की अर्थव्यवस्था मंद हुई थी वहीं भारत और चीन समेत सभी विकासशील देश मंदी से अछूते रह गए थे। भारत ही एकमात्र देश नहीं था जहाँ मंदी का अर्थव्यवस्था पर विशेष असर नहीं पड़ा था। सबसे कम प्रभावित देशों में पहले स्थान पर आस्ट्रेलिया था, उसके बाद चीन दूसरे और भारत संयुक्त रूप से सिंगापुर के साथ तीसरे स्थान पर था। और भी कई देश जो मंदी के दौरान बहुत कम प्रभावित हुए थे। जैसे हॉन्गकॉन्ग, कनाडा, जापान, कतर, न्यूज़ीलैंड, मलेशिया, स्वीडन, वियतनाम, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, इंग्लैंड, बेल्जियम, फ़्रांस, साउथ अफ्रीका, कोरिया, ताइवान, आॅस्ट्रिया, रूस, जर्मनी, आयरलैंड, ब्राज़ील, मोरक्को, ईरान, थाईलैंड, रोमानिया आदि देश भी मंदी से लगभग अछूते रहे थे।

मंदी सबसे अधिक प्रभावित कोई एक देश था तो वह अमरीका ही था। अमेरिकी बैंकिंग और हाउसिंग सेक्टर चरमरा गई थी। अमेरिकी डॉलर का मूल्य गिर रहा था। रोजगार कम रहे थे।

लेकिन यह कहना कि तनिक भी किसी देश भी देश की अर्थव्यवस्था पर असर नहीं पड़ा था, अतिश्योक्ति होगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था और बाजार में मंदी से अमेरिका को निर्यात करने वाले देशों निर्यात प्रभावित हुआ था। चूंकि भारत का अमेरिका को निर्यात अल्प है, अतएव भारतीय निर्यात पर असर दृष्टिगोचर नहीं हुआ।

अब काँग्रेस और इसके समर्थक अभी रुपया का डॉलर के मुकाबले कमजोर होने का 2008 के मंदी के दौर से उदाहरण देते हुए उस समय की मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार की प्रशंसा ऐसे करते हैं जैसे भारत ही एकमात्र देश रहा जहाँ अमेरिकी मंदी का असर नहीं पड़ा और कभी उपरोक्त वर्णित तथ्यों का जिक्र नहीं करते। पाठकों को अब तक पता चल चुका होगा कि भारत अकेला देश नहीं था बल्कि और भी देश थे जिनके यहाँ मंदी से अर्थव्यवस्था प्रभावित नहीं हुई थी।

दूसरी बात वर्तमान स्थिति में रुपये के अवमूल्यन की तुलना 2008 के मंदी से नहीं की जा सकती। उस समय मंदी से अमेरिका ही सबसे ज्यादा प्रभावित था। इस वजह से डॉलर कमजोर हो रहा था। अभी डॉलर मजबूत हो रहा है। तेल, ईरान, अमेरिकी नीतियाँ आदि के कारण सभी देशों की मुद्रा कमजोर हो रही है। फिर भी भारतीय रुपया का 7% का अवमूल्यन अन्य देशों की तुलना में काफी कम है।अभी भारत और सिंगापुर ये ही दो देश हैं जिनकी मुद्रा सबसे कम प्रभावित हुई है।

कमजोर मुद्रा आयात के दृष्टिकोण से नुकसानदेह होता है और निर्यात के लिए लाभदायक। चीन ने अर्थशास्त्र के इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अपनी मुद्रा आरएनबी को डॉलर के मुकाबले कृत्रिम रूप से कमजोर रखा और अपने यहाँ उत्पादन को प्रोत्साहन देते हुए अधिक निर्यात से अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया।

भारत भी इसी तरह लाभ कर सकता है। कमजोर रुपया से आयात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से और वर्तमान सरकार की मेड इन इंडिया को माकूल वातावरण मिलने से निर्यात में बढ़ोत्तरी हो सकती है और इस तरह भारत के वित्तीय घाटे पर अंकुश लग सकता है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि भारत को इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाना चाहिए।
                                                  
- शशांक शेखर

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