तुलसी समाज सुधारक नहीं हैं वरन् वे व्यक्ति सुधार के पक्षधर दिखते हैं। स्वाभाविक है कि व्यक्ति सुधार ही समाज सुधार का आधार है।
मानवीय गुण दोषों को तुलसी ने सपाट एवं सहज रूप से उकेरा है और उनकी मनोवैज्ञानिक विवेचना के साथ उनसे निपटने की सहज, प्रचलित एवं व्यवहृत उपाय प्रस्तुत किए हैं। यथा -
ममता रत सम ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी ।।
क्रोधिहिं सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा ।।
क्या मोही , लोभी, क्रोधी और कामी के संदर्भ में कही गई इस उक्ति को झुठलाया जा सकता है?
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
नीच विवेकहीन पात्र विनय से कभी नहीं मानता। इसमें क्या संदेह हो सकता है?
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत।।
क्या साम दाम दंड भेद में साम की उपयोगिता से इंकार किया जा सकता है? ... यह मत लछिमन के मन भावा।। शेषनाग के अवतार लक्ष्मण क्रोधी स्वभाव के हैं, अतएव, उन्हें श्री राम का आवेशित होना भली भांति भाया। क्योंकि लक्ष्मण को राम द्वारा समुद्र से रास्ता मांगना अच्छा नहीं लगा था। वह प्रत्यक्ष और तीव्र कार्रवाई की अपेक्षा रखते हैं। जैसा कि लक्ष्मण ने राम जी से कहा भी है -
कादर कहूँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।। मनुष्य के स्वभाव व प्रकृति के अनुकूल उसको भाने वाली कार्यान्वयन शैली का चौपाई में तुलसी द्वारा वर्णन संकेत करता है कि उन्हें मनोविज्ञान की कितनी गूढ़ समझ थी। इसी मनोवैज्ञानिक समझ के क्रम में
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी..." चौपाई को भी देखा जाना चाहिए।
तुलसी के आदर्श राम हैं और राम के प्रति उनकी भक्ति अगाध है। इस परिप्रेक्ष्य में भी तुलसी का चरित्र समझने का प्रयास करें।
चूंकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो उनकी भक्ति करने वाला सहज रूप से मर्यादित आचरण का समर्थक होगा। इसी कड़ी में तुलसी अपनी रचना रामचरितमानस में दुर्गुणी व्यक्तित्व को आड़े हाथ लेते हैं और समाज को आगाह करते हैं। कभी कभी वे ऐसा कटाक्ष के माध्यम से भी करते हैं। उदाहरणार्थ -
गौर बदन तन सुंदर कैसे।
विष रस भरा कनक घट जैसे।।
उपर्युक्त चौपाई के लिए भी आलोचक तुलसी की आलोचना करते हैं कि स्त्री की येन केन प्रकारेण आलोचना करते रहते हैं। ऐसे आलोचकों के लिए-
भूप सहस दस एकहि बारा।
लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें।
कामी बचन सती मनु जैसें॥
अर्थ - दस हजार राजा मिलकर एक साथ धनुष को उठाने लगे, तो भी वह टस से मस नहीं हुआ। शिवजी का वह धनुष कैसे हिलता तक नहीं था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन उछृंखल नहीं होता। प्रस्तुत चौपाई में सती स्त्री अर्थात शीलवती स्त्री की उपमा दी है।
प्रसंग है कि राजा जनक ने जब सीता स्वयंवर आयोजित किया तो शर्त थी कि जो शिव धनुष तोडे़गा सीता का विवाह उसी से होगा। किंतु कोई धनुष को तोड़ क्या हिला तक नहीं पाया। तब दस हजार राजाओं ने एक साथ धनुष को उठाने का प्रयास किया, किंतु तब भी धनुष टस से मस नहीं हुआ। इसी संदर्भ में संत तुलसी ने सतीत्व पूर्ण स्त्री के मन की स्थिरता की तुलना शिव धनुष से की है।
अब सोचने वाली बात है कि यदि वे वास्तव में स्त्री विरोधी होते तो क्या ऐसी उपमा देते ? वे स्त्री विरोधी नहीं हैं वरन् नीच स्त्री और पुरुष, दोनों के विरोधी हैं। वे ऐसे लोगों को चाहे वो स्त्री हो या पुरुष सुसंस्कृत करना चाहते हैं। तभी तो ...गँवार शूद्र पशु नारी... ताड़ना के अधिकारी।। स्पष्ट है कि गँवार पुरुषों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
अब तनिक आज के परिप्रेक्ष्य में चरित्रगत सामाजिक स्थिति का अवलोकन करें। इससे तुलसी की और उनकी निंदा करने वालों के साथ साथ सभ्यता संस्कृति के युगकालिक अन्तर और निरंतर पतनशीलता को मापने में सहूलियत होगी।
तुलसी के समय चारित्रिक रूप से पतित की कड़े शब्दों में फटकार की स्वतंत्रता थी। किंतु आज उल्टा है। आज पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित बुद्धिजीवी वर्ग इसे स्वतंत्रता पर आघात करार देता है। तो प्रश्न है कि क्या शील विहीन नारियों को स्वछंद और उन्मुक्त छोड़ देना चाहिए? किसी भी सभ्य समाज में ऐसा अनुकरणीय है? भारत की उत्कृष्ट संस्कृति का एक मानदंड रहा है। उन्हीं मानदंडों के शीर्ष स्तर पर पालन के कारण भारत कभी विश्व गुरु रहा है। किसी भी सजग इंसान का कर्तव्य होता है समाज के लोगों का दिशा निर्देशन करना। तुलसी यदि चरित्रहीन नारियों को सन्मार्ग पर रखने के लिए निर्देशित करने का उपदेश देते हैं तो क्या गलत करते हैं? उन्होंने केवल नारियों के लिए नहीं अपितु पुरुषों को भी साधने की बात कही है। चौपाई में नारी के पूर्व गँवार शूद्र अर्थात असभ्य सेवक इसी कड़ी में हैं।
अब जरा देखें कि वर्तमान काल में नारियों की चारित्रिक स्थिति क्या है? अजीबोगरीब फैशन अपनाकर अंग प्रदर्शन करती, फूहड़ता का परिचय देती महिलाएं सभी ओर देखी जा सकती हैं। कभी अनब्याही माँ होना लज्जा की बात होती थी। आज पत्र पत्रिकाओं, एवं टीवी पर बड़े गर्व से ऐसी स्त्रियाँ साक्षात्कार देती पायी जाती हैं। इसी तरह लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएं लिव इन की महिमा मंडन करते पायी जाती हैं। संत तुलसी दास जी की अकारण भर्त्सना करने वालों को यह सब नहीं दिखता या वे ऐसा ही स्वछंद, उन्मुक्त, असभ्य, व्यभिचारी समाज चाहते हैं? आज के उन्मुक्त, वातावरण के लिए सरकारें, ऐसे बुद्धिजीवी एवं मीडिया उत्तरदायी नहीं हैं? आज लगाम लगाने को अमानवीय मान, निर्लज्जता, पशुता को सभ्यता के पहलू के रूप में स्थापित किया जा रहा है।
उपरोक्त वर्णित स्थिति में संत तुलसी दास जी अपनी चौपाई "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी..." द्वारा उदंड लोगों की ताड़ना ही कर रहे हैं। लेकिन जैसे स्कूल में उपद्रवी बच्चे अनुशासन प्रिय शिक्षकों को पसंद नहीं करते या समाज के कई लोगों को सख्त प्रशासन रास नहीं आता है, वैसे ही कुछ लोगों को तुलसी खलते हैं। किंतु, तुलसी जैसे सुधारक की आवश्यकता हर काल में होती है।
संदर्भ: रामचरितमानस
रत्नवाली