फुरित शब्दों का प्रयोग करते हैं जो अनायास आये होते हैं या तुकबन्दी की दृष्टि से उपयुक्त होते हैं। वहां शब्द विशेष का नहीं बल्कि तात्पर्य का महत्व होता है।
कहते हैं कि कवि को कभी कभी काव्य सृजन केे स्वतः स्वाभाविक स्फुरण्णता के क्रम में शब्दाभाव हुआ रहता है या शब्द विशेष के प्रयोग की संत तुलसीदास जी की रामचरितमानस की चौपाई
"ढोर गंवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।" के साथ लोगों ने कुछ ऐसा ही किया है। जबकि इस चौपाई के प्रत्येक शब्द से प्रासंगिकता और काव्य प्रवाह दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति सहज रूप से हो रही है। साथ में तात्पर्य भी स्पष्ट हो रहा है।
यह भी स्मरण रहे कि इस चौपाई में ताड़ना का प्रयोग किया गया है, प्रताड़ना का नहीं।
फिर भी विद्वान लोगों ने संत तुलसी दास जी की इस चौपाई को लेकर विभिन्न मंचों से भर्त्सना की है। उन्हें संकीर्ण मानसिकता वाला, स्त्री विरोधी तक कहा गया।
आइए, देखें इस चौपाई का और इसमें वर्णित पात्रों के संदर्भ में प्रयुक्त शब्द "ताड़ना" का अर्थ क्या है। यहाँ ताड़ना का प्रयोग श्लेष अलंकार के रूप में किया गया है।
ताड़ना का अर्थ होता है - मारना-पीटना, आघात पहुँचाना, डांटना-डपटना, कठोर वचन कहना, भांपना(ताड़ लेना), परखना, समझना, दिशा देना या निर्देशित करना। सामान्यतः ताड़ना में समझाने-बुझाने के क्रम में भी आक्रोशित हो थोड़े कठोर वचन या कटाक्ष का उपयोग भी किया जाता है।
यहां चौपाई में ताड़ना का अर्थ ढोल के संदर्भ में ढोल को पीटने से है। अब ढोल का अर्थ पीटना क्या होगा, जाहिर है ढोल पीटने का तात्पर्य उसे संगीत के अनुसार थाप देकर प्रकंपित करने से होता है ताकि मधुर स्वर निकले।
चौपाई का दूसरा शब्द 'गंवार' है, जिसका अर्थ असभ्य है। शिक्षक को कभी कभी अपने शिष्य को ताड़ना देने की आवश्यकता होती है, अर्थात उसकी समझ को भांप कर यथानुसार समझाने की होती है ताकि वह उसे सही ढंग से निर्देशित कर सके, उसे गंवार से सभ्य बना सके।
इसी तरह शुद्र सेवक वर्ग (कर्मचारी वर्ग) को कहते हैं तथा उसे भी जो शुचिता से दूर हो या नियमों आदि का पालन न करता हो। यहाँ उसके ताड़ना का अर्थ है उसके कार्यपालन का अवलोकन करते रहना। कभी कभी इन सभी वाकयों में परिस्थितिवश कठोर वचन या अनुशासनात्मक कार्रवाई की भी आवश्यकता पड़ती है।
पशु के साथ ताड़ना का अर्थ है, उसकी चाल को भांप कर दिशा देना। जैसे किसान बैल को खेत जोतते समय कभी उसका पूंछ ऐंठता है, तो कभी छंड़ी से हल्के से पीटता है। यह सब वह उसकी चाल को भांपते हुए एक खास दिशा देने के लिए करता है।
नारी के संदर्भ में अर्थ उसपर दृष्टि रखने, उसके मन को पढ़ने और उसे अपने कुल रीतियों से अवगत कराने से है। एक लड़की जब ब्याह के बाद ससुराल आती है तो पति को और ससुराल वालों को उसे पहले ताड़ने की आवश्यकता होती है अर्थात् उसकी मानसिकता को परखने समझने की आवश्यकता होती है।
उसे घर की बड़ी बुजुर्ग स्त्रियाँ कुल की रीतियों को अपनाने के लिए निर्देशित करती हैं, उन रीतियों को बताती हैं। यदि नारी चंचला है तो घर की बुजुर्ग स्त्रियां उसे रोकती टोकती हैं। यदि वह हठी है और नीतियों - रीतियों को सहजता से अपनाने में आनाकानी करती है तो ऐसी स्थिति में भी घर की बुजुर्ग स्त्रियाँ अक्सर कठोर वचनों का उपयोग भी करती हैं अर्थात ताड़ना करती हैं।
हमने अभिभावकों, शिक्षकों, अध्यापकों से सुना था कि इस चौपाई में तुलसीदास जी ने नारी का तात्पर्य अनैतिक नारी से किया है जो नैतिक अनैतिक में भेद न करे उसे सही मार्ग पर रखने के लिए ताड़ना यानि डाँट डपट देनी पड़ती है।
इस प्रकार तुलसी दास जी इस चौपाई का अर्थ स्पष्ट है कि ढोल को प्रकंपित, गँवार को सभ्य, शुद्र को शिक्षित, पशु को साध कर और नारी को अर्थात घर आई वधू को भली भांति भांप कर, परख-समझ कर आवश्यकतानुसार निर्देशित किया जाता है।
लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥
उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि पाँच वर्ष तक लालन अर्थात् प्यार के साथ पोषण होना चाहिए। दस वर्षों तक अर्थात् पंद्रह वर्ष की अवस्था तक ताड़न होना चाहिए। फिर सोलह वर्ष की अवस्था से पुत्र के साथ मित्रवत व्यवहार होना चाहिए। दस वर्षों तक ताड़ना की अनुशंसा की गई है। तो क्या इसका ये अर्थ हुआ कि उसकी दस वर्षों तक पिटाई होती रहेगी?
जब तुलसी आलोचकों को उनकी चौपाई में प्रयुक्त ताड़ना के इस तात्पर्य पर भी आपत्ति है तो उनसे एक प्रश्न है कि विद्यार्थियों को स्कूल - कॉलेज में, कर्मचारियों को निजी अथवा सरकारी प्रतिष्ठानों में, सैनिकों को सेना में अनुशासित करने के लिए डांट - डपट क्या नहीं दी जाती या कठोर वचन नहीं बोले जाते ? क्या महिला कर्मचारियों को, जहाँ भी वे नौकरी करती हैं, वहाँ अपने उच्चपदस्थ से कभी डांट डपट नहीं मिलती? यह सब ताड़ना ही तो है। क्या यहाँ ताड़ना देने वाले सभी तुलसी की चौपाई पढ़ कर ही ताड़ना देते हैं? नहीं न! क्योंकि अनुशासित करने के लिए ताड़ना विश्वव्यापी साधन है। तो फिर तुलसी की ऐसी आलोचना क्यों?
अब तनिक तुलसीदास जी की इस चौपाई की पूर्व प्रासंगिक कड़ियों और साथ ही इन सबके काव्य स्फुरन् में योगदान की ओर ध्यान दें। यह चौपाई सम्यक रूप से उकेरित पूर्व प्रसंग को निष्कर्ष प्रदान करने में सहायक होने के साथ साथ काव्य प्रवाह के निर्वहन में भी उतनी ही क्षमता से प्रभावी सिद्ध हो रही है। साथ में काव्य सौंदर्य का रसास्वादन भी उपमाओं का सार्थक प्रयोग के आलोक में करें।
प्रसंग है कि श्री राम समुद्र से लंका जाने के लिए रास्ता मांग रहे हैं। यथा -
विनय न मानत जलधि जड़ गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत ।।
अर्थ - तीन दिन बीत गये, किंतु जड़ समुद्र विनय का कोई असर ही नहीं हो रहा। तब रामजी क्रोधित हो बोले- भय के बिना प्रीति नहीं होती।
तब प्रभु कहते हैं-
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु।।
सठ सन बिनय कुटिल सम प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
हे लक्ष्मण! लाओ धनुष-बाण। मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूं। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, कंजूस से उदारता की बात भला कभी सुंदर नीति हो सकती है?
ममता रत सम ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी ।।
क्रोधिहिं सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा ।।
ममता में डूबे व्यक्ति से ज्ञान की कहानी, लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शान्ति की बात और कामी से भगवान की कथा, इनका फल वैसा ही व्यर्थ होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है।
अस कहि रघुपति बान चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा ।।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ।।
ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत भाया। प्रभु ने भयानक अग्निबाण सन्धान किया, समुद्र के हृदय में अग्नि की ज्वाला उठी।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत तुरंत जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
मगर,सांप तथा मछलियों के झुंड व्याकुल हो गये। जब समुद्र में सभी जीव जलने तब सोने के थाल में अनेक रत्नों को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया।
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
चाहे कोई कितने ही उपाय कर ले पर केला तो काटने पर ही फलता है । नीच विनय से नहीं मानता वह डांटने पर ही रास्ते पर आता है।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा-हे नाथ! मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिये। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि ,जल और पृथ्वी- इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ है।
तव प्रेरित माया उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहिं कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।
आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिये उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थों ने यही गाया है। जिसके लिये स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार रहने में सुख पाता है।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल , गँवार ,सूद्र ,पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे दण्ड दिया। किंतु मर्यादा, जीवों का स्वभाव भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल,गँवार,शूद्र,पशु स्त्री - ये सब दण्ड के अधिकारी हैं।
स्वतः स्फूरित काव्य प्रवाह में प्रसंग का वर्णन कितना प्राकृतिक और सुंदर है!
तुलसी दास जी ने मानव मनोविज्ञान का कितना सुंदर और सटीक स्वाभाविक प्रस्तुतिकरण किया है। श्री राम का तीन दिन तक समुद्र से याचना के बाद भी समुद्र का जड़ बने रहना। परिणामस्वरूप श्री राम का क्रोधित होना। लक्ष्मण को यह भाना। समुद्र का उपस्थित होना। राम जी द्वारा नीति विषयक तथ्यों यथा मूर्ख, कुटिल, कंजूस, मोह - ममता में डूबे प्राणी, लोभी, क्रोधी लोगों के साथ अपनायी जाने वाली व्यावहारिक नीतियों की अनुकूलता देखिए। तदुपरांत, विनयातीत समुद्र द्वारा प्रभु निर्मित प्रकृति के गुण दोषों का वर्णन एवं जीव व पदार्थ का प्रकृति के अधीन रहने का वर्णन अतुलनीय है। नीति उपदेशक बिंदुओं का उपमाओं सहित सहज स्वाभाविक प्रत्यारोपण काव्य प्रवाह को स्वतः स्वफुरित कर कवि की प्रखरता और काव्य दोनों को दैदीप्यमान कर रहा है। काव्य में पारिस्थितिकी चित्रांकन एवं नीति उपदेश दोनों दृष्टिकोण से प्रसंग वर्णन के स्वाभाविक प्रवाह में चौपाई में आया "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी..." पूर्णतः समीचीन है।
इस चौपाई के औचित्य और न्याय संगतता को अब संत तुलसी दास जी की ही पत्नी रत्नावली जी की प्रस्तुत दोहे के आलोक में करते हैं। रत्नवाली का दोहा:
भूषन रतन अनेक जग, पै न सील सम काई।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषन होइ।।
अर्थात जग में अनेक रत्न भूषण हैं, पर शील जैसा कोई नहीं। स्त्री के आँखों का शील ही आभूषण होती है। वही जग में सम्माननीय होती है। तुलसी और रत्नावली के चौपाई और दोहे के दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन एक ही बिन्दु की ओर इंगित करता है और वह है नारी चरित्र। रत्नावली ने स्त्री के शीलवती होने का परोक्ष उपदेश किया है तो तुलसी चरित्र विहीन स्त्री को पशु नारी की उपमा देते हुए उसे साधने की प्रत्यक्ष अनुशंसा करते हैं।
तुलसी सीधे सीधे एक शिक्षक और समाज सुधारक, जो मानव व्यवहार में त्रुटि या विसंगति को देखकर आँखे मूंदे मूक नहीं रह सकता बल्कि विसंगति उन्मूलन हेतु नीतिगत व्यावहारिक शोधन की संस्तुति करता है, की भूमिका में अपने को प्रस्तुत करते हैं। अब प्रश्न है कि क्या तुलसी अपने काव्य माध्यम से जो कह रहे हैं वह उचित है? सकारात्मक उत्तर में हमें शंका नहीं होनी चाहिए। क्योंकि मानव विकास हेतु कवि का कर्तव्य सत्यता पूर्वक अंधकार को प्रकाशित करना एवं तदनुसार दिशा निर्देश करना होता है...
तमसो मा ज्योतिर्गमय।।
असदो मा सद्गमय।।
इस भूमिका में संत तुलसी दास पूर्णतया खरे उतरते हैं।